चौपाल में बैसाखी के साथ जलियाँवाला बाग की याद

मई 10, 2007

इस बार मुंबई चौपाल कुछ अलग ही रंग में थी। श्री अतुल तिवारी अपनी पूरी मस्ती के साथ चौपाल का संचालन किया। संचालन करने के साथ ही उन्होंने देश भर में अलग अलग तरीके से बैसाखी मनाने की परंपराओं की जानकारी देते हुए बताया कि बंगाल में इसे पैला ( पीला) बैसाख के नाम से,  दक्षिण में बिशु के नाम से केरल, तमिल और असम में बिहू के नाम से मनाया जाता है। ग्रीस में भी इसे जमीन को उर्वरकता प्रदान करने वाले देवता के आगमन के रूप में मनाया जाता है। इस मौके पर मछली पकड़ने के जालों की पूजा भी की जाती है।

उन्होंने एक रोचक जानकारी देते हुए बताया कि 1919 में बैसाखी 13 अप्रैल को आई थी, और इसके बाद 21 वीं शताब्दी में अंग्रेजी कैलेंडर एक दिन आगे खिसकाने की वजह से यह 14 अप्रैल को मनाई जाने लगी।

अतुलजी ने बताया कि मुंबई चौपाल की नेट पर निरंतर हो रही पोस्टिंग से जाने माने गीतकार और फिल्मकार गुलज़ार साहब इतने प्रभावित हुए कि उन्होने चौपाल में पढ़ी जाने वाली रचनाओं और रचनाकारों को लेकर एक नियमिमत बुलेटिन प्रकाशित करने के लिए अपनी ओर से दस हजार रुपये देने की पेशकश की, उनके सुझाव को अतुलजी ने सभी चौपाली बंधुओं की ओर से स्वीकार तो किया मगर राशि लेने से इंकार कर दिया। उनका कहना था गुलज़ार साहब का आशीर्वाद और मार्गदर्शन इस चौपाल की सबसे बड़ी पूंजी है।

तो चलो चौपाल की शुरुआत हुई और बैसाखी का रंग चैपाल में खूब जमा,  मगर हम इस चौपाल का पूरा हाल आपको नहीं बता पाएंगे क्योंकि थोडी देर के लिए हमें एक रेकॉर्डिंग में जाना पड़ा और चौपाल की राजधानी एक्सप्रेस अपनी गति से बगैर रुके अपनी गति से चलती रही। फिर भी जो भी हमारे कानों और आँखों के हिस्से में आया उसे आप तक पहुँचा रहे हैं।

चौपाल की शुरुआत हुई पुष्पा राव द्वारा प्रस्तुत अमीर खुसरो की कृष्ण पर लिखी रचना से।  

मुँह से बोलो ना बोल,  मेरी सुन या अल्ला सुन

मैं तो तोहे ना छोडूंगी रे सांवरे,  मौरी सास ननंदिया फिरतौ फिरे

मौसे फिरे क्यूं जाए सांवरे, मैं भी तो आई तौरी छाँव रे

रही लाज शरम की बात कहाँ, जब प्रेम के फांदे दियो पाँव रे

मौसे बोलो न बोल….

(यह बता देना उचित होगा कि सूफी पंरपरा में  भक्त अपने आपको ईश्वर की प्रेमिका समझता है, इसीलिए सूफी गीतों के रचयिता भले ही पुरुष हों वे अपने आपको स्त्री के रूप में ही प्रस्तुत करते हैं)

इस बार चौपाल में खास मौजूदगी थी अनिल सहगल साहब की, उन्होने जलियाँ वाला बाग की कई मर्मांतक घटनाओं का उल्लेख करते हुए बताया कि इस कांड मे सभी जातियों के हजारों लोगों ने कुर्बानी दी थी, और आज़ादी की लड़ाई में शहीदों की शहादत के साथ ही उस दौर के साहित्यकारों का भी ज़बर्दस्त योगदान था। जंगे आज़ादी के दो नारे जो क्रांति के प्रतीक बन गए थे इंकलाब जिंदाबाद और वंदे मातरम् साहित्यकारों की ही देन थे। ये नारे  पूरे आज़ादी आंदोलन में लोगों में जोश भरते रहे। उन्होंने कहा कि जंगे आज़ादी की लड़ाई में चंद सिपाहियों के नाम ज़रुर सामने आ जाते हैं और पीढी दर पीढ़ी याद रखे जाते हैं मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हजारों लाखों शहीद ऐसे होते हैं जिनका कोई नाम नहीं होता है मगर उनकी शहादत कभी किसी से कम नहीं रही। उन्होने कहा कि उस दौर के साहित्यकार सरजू ने जलियांवाला बाग के विरोध में एक कविता लिखी थी, अंग्रेज सरकार ने उनको गिरफ्तार तो किया ही उस कविता को भी जप्त कर लिया और उसके पढ़ने और लिखने पर पाबंदी लगा दी।

पेश है इस कविता की कुछ पंक्तियाँ जिसे सुश्री सीमा सहगल ने अपनी सुरीली आवाज़ में पेश  कर पूर्  माहौल में मानो वीर रस की वर्षा कर दी।

बेगुनाहों पर बमों की बेखबर बौछार की

दे रहे हैं धमकियाँ बंदूक और तलवार की

बाग़-ए-जलियाँ में निहत्थों पर वो चलाई गोलियाँ

पेट के बल भी रंगाया जुल्म की हद पार की।

हम गरीबों पर कया जिसने सितम बेइंतहा

याद  भूलेगी नहीं उस डायरे बदकार की

शोर आलम में मचा है हाजपत के नाम से खार करना इनको चाहा अपनी मिट्टी खार के

बेगुनाहों पर बमों की बेखबर बौछार की

दे रहे हैं धमकियाँ बंदूक और तलवार की

जिस जगह पर बंद होगा शेरे नर पंजाब का

आबरु बढ़ जाएगी उस जेल की दीवार की

जेल मं भेजा हमारे लीडरों को बेकुसूर

लॉर्ड रिडींग तुमने अच्छी न्याय की भरमार की

इस कविता के साथ उन्होने एक और ऐतिहासिक घटना का उल्लेख करते हुए बताया कि 1919 में जलियाँवाला बाग कांड के पहले 1914 में गुजराँवाला शहर में जब आज़ादी की जंग का लावा फूटा था तब अंग्रेजों ने विमानों से लोगों पर बमों की बौछार की थी, इसीलिए इस कविता में बमों की बौछार शब्द का उल्लेख आया है। उन्होने बताया कि इसके बाद अमृतसर की गलियों में भारतीयों को पेट के बल लेटकर जाना पड़ता था, वे अपने पैरों पर चलकर कहीं आ जा नहीं सकते थे। इस बात उल्लेख अंग्रेज अफसर पी जे हॉर्निमेन ने खुद किया है।

 सुश्री सीमा सहगल ने माहौल में संगीत का रस घोलते हुए माखनलाल चतुर्वेदी की कविता पुष्प की अभिलाषा पेश की।

यह कविता तो स्कूली किताबों में कई बार सुनी और रट रट कर परीक्षाएं भी पास कर ली मगर जिस भाव और तल्लीनता के साथ उन्होने यह रचना पेश की, ऐसा लगा मानो कोई गीतकार देश के बच्चे बच्चे को ललकार रहा है।

चार पंक्तियाँ पेश है

चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूंथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव पर,

है हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं, देवों के सिर पर,
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ!
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जावें वीर अनेक।
मैं क्षमा प्रार्थी हूँ कि चौपाल में इस प्रसंग को पढ़ने वालों को उस कविता के शब्द ही पढ़ने को मिल रहे हैं सीमाजी  ने जिस गहराई और भावप्रणणता के साथ इस कविता के शब्दों को जीवंतता प्रदान की है, वह आप तक नहीं पहुँच पा रही है, मगर मुझे उम्मीद है कि चौपाल के सुधी पाठक खुद उस भाव बोध को ग्रहण कर इन शब्दों के मर्म को पकड़ लेंगे।

गुरूवाणी के गायक कुलदीपसिंहजी ने इस मौके पर बैसाखी पर एक पंजाबी अखबार मं प्रकाशित एक आलेख को हिंदी मं पढ़कर सुनाया पढ़ा जिसमें पंजाबी मानसिकता में बैसाखी के महत्व को प्रतिपादित किया गया था।

 उन्होने बताया कि 1469 में गुरू नानक देवजी ने जिस खालसा पंथ की कल्पना की थी 1699 में गुरू गोविंद सिंहजी उसी खालसा की स्थापना की। कुलदीपसिंहजी ने अपनी दो बेटियों के साथ बैसाखी की मस्ती के कुछ गीत पेश कर पूरी चौपाल को बैसाखी के रंग में रंग दिया।

इस मौके पर प्रयोगधर्मी फिल्मकार श्री चित्रेश द्वारा निर्मित एक फिल्म भी दिखाई गई। उन्होने यह फिल्म देश के जाने अनजाने शहीदों की शहादत को याद करते हुए कई प्रामाणिक तथ्यों व घटनाओं के उल्लेख के साथ बनाई है। हम तो यह फिल्म नहीं देख पाए मगर चित्रांश जी से चौपाल पढ़ने वालों के लिए जरुर निवेदन करेंगे कि इस फिल्म के बारे मे वे  बताएं।

कार्यक्रम का समापन अतुलजी ने इन शब्दों के साथ किया

 कितने भी जलियाँवाला बाग आए,

उम्मीदें नहीं छोड़नी है

बैसाखी यही एक उम्मीद जगाती है

 चौपाल के आठ साल और इप्टा के 65 साल एक साथ

उम्मीद जगाने के इसी सिलसिले के साथ आपको यह भी बता दिया जाए कि अगली चौपाल रविवार, 13 मई को अपरान्ह 4 बजे  मुंबई में ही होगी और इस बार चौपाल पना आठवाँ साल मना रही है साथ ही इप्टा के 65 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में चौपाल में इप्टा की इस 65 साल की यात्रा पर चर्चा होगी। इस मौके पर इप्टा, फिल्म, थिएटर, कला और साहित्य से जुड़ी कई शख्सियतें चौपाल में मौजूद होंगी। यानि अगर फिल्म की भाषा में कहा जाए तो इस बार चौपाल की मल्टी स्टारर फिल्म रीलिज होने जा रही है। आप अगर चौपाल में आना चाहें तो हमें मेल भेज दीजिए आपको पूरा पता आदि भेज दिया जाएगा।  


चौपाल में डॉक्टरों ने गाया फागुन और छोड़े व्यंग्य के तीर

मार्च 15, 2007

मुंबई की चॉपाल ने एक बार फिर अपनी सार्थकता सिध्द की है। इस बार चौपाल में मुंबई के ख्यातिनाम अस्पतालों के डॉक्टरों ने अपनी विलक्षण काव्य, लेखन और गायन प्रतिभा से मौजूद चौपालियों को रोमांचित कर दिया। इस बार  चौपाल पर मुंबई के जाने माने डॉक्टरों का कब्जा रहा और उन्होंने पूरी उर्जा और मस्ती के साथ मौजूद श्रोताओं को श्रृंगार, हास्य-व्यंग्य, करुण और वीर रस के साथ ही शास्त्रीय गायन के माध्यम से रसों से सराबोर कर दिया। पूरा माहौल इतना अनौपचारिक और आत्मीय हो गया था कि चौपाल का नाम सार्थक हो गया। डॉक्टरों को इस मंच पर लाने का पूरा श्रेय श्री अशोक बिंदलजी को जाता है जो परदे के पीछे रहकर किसी कर्मयोगी की तरह चौपाल को सजाने में जुटे रहते हैं।

श्री अतुल तिवारी का अपना अंदाज है और वे हर बार अपने नए तेवर के साथ चौपाल का संचालन कर इसकी रंजकता को बनाए रखते है।

 कार्यक्रम की शुरुआत श्री यज्ञ शर्मा द्वारा प्रस्तुत व्यंग्य रचनाओं से हुई। इसके बाद मोर्चा सम्हाला डॉक्टरों ने। डॉ. दिलीप नाडकर्णी ने ने अपना मोबाईल  चोरी होने के बारे में जब अपने दोस्तों को बताया तो उनके दोस्तों ने फैज़ अहमद फैज़ की शैली में उनके ही अंदाज़े बयाँ के साथ उनके दर्द को कुछ इस तह समझा

 हंगामा है क्यूँ बरपा, एक छोटी सी तो चोरी है….

फिर उन्होने अपने गम को इस तरह भुलाने की कोशिश की..

चुपके चुपके जेब से मोवाईल गँवाना याद है…

हमको अब तक वो समोसा खाना याद है…

इसके बाद डॉ. चेतन महाजन ने मराठी में अपनी शानदार व्यंग्य रचना प्रस्तुत कर इस बातो सिध्द किया कि डॉक्टर की गंभीर दिनचर्या में भी किस तरह व्यंग्य पैदा होता है। 

इसके बाद समाज सेवा से जुड़ी डॉ. चेतन महाजन ने सावित्री और सत्यवान नामक रचना प्रस्तुत कर पति, पत्नी और वो से उत्पन्न सामाजिक विडंबना को बहुत ही गंभीरता से प्रस्तुत कर अपनी संवेदनशीलता से पूरे माहौल को गंभीरता से भर दिया।

डॉ. वालावणकर ने अपने डॉक्टर समुदाय पर ही किए गए  छोटे छोटे व्यंग्य तीरों से पूरे माहौल में हँसी के फव्वारे छोड़े। एक नामी अस्पताल का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि इस अस्पताल में कोई भी मरीज आता तो मर्सीडिज़ से है मगर जाता पैदल है।

डॉक्टर मिसेस माथुर ने डॉक्टरी पेशे के दौरान पैदा होने वाली  अपनी छोटी छोटी रचनाओं को बेहद रोचक अंदाज़ में प्रस्तुत किया।

चौपाल में शास्त्रीय संगीत का रस घोलकर डॉ. राहुल जोशी ने तो जैसे पूरे सदन की वाहवाही लूट ली। उन्होंने किसी परिपक्व शास्त्रीय गायक की तरह एक ही बंदिश को अलग अलग रागों में गाकर मौजूद सभी श्रोताओं को अभिभूत सा कर दिया। यह जान लेना दिलचस्प होगा कि कोई सिध्दहस्त गायक भी एक ही बंदिश को अलग अलग रागों में एक साथ नहीं गा सकता।

तोरी मैं ना मानूंगी झूठी बतिया करत

सौतन के घर जावत प्रीत तोरी झूठी मैं ना मानूंगी

 चलो हटो तुम उन्हीं के संगार हो

हमसे ना बोलो तुम मैने जानी  बात सारी

जियरा जलत, तोरी मैं ना मानूंगी…

इस बंदिश को डॉ. जोशी ने जब राग यमन से शुर कर जौनपुरी, प्रिया घनश्री, और मालकौंस में किसी सधे हुए गायक की तरह गाया तो श्रोताओं के मुँह से लगातार वाह वाह निकलती रही। डॉ. जोशी ने कहा कि शास्त्रीय संगीत उन्हें अपने मरीज के साथ तादात्म्य बिठाने में बहुत मदद करता है। संगीत के माध्यम से डॉक्टर और मरीज के बीच सुर और ताल बैठ जाती है। साथ ही संगीत हमे हमेशा इस बात की याद दिलाता है कि हम सुरीलें बनें। डॉ. जोशी ने पंडित नारायण राव गोड़ेजी से शास्त्रीय संगीत की विधिवत शिक्षा ली है।

कार्यक्रम में डॉ. मानिंद पुर्वे ने रस्सी का जादू पेश कर सभी को अचंभित कर दिया। उन्होंने एक रस्सी को बार बार काटकर उसको दोबारा जोड़कर जिस अंदाज़ से पेश किया वह वाकई एक रोमांचक दृश्य था। किसी डॉक्टर को जादू पेश करते देखना सभी के लिए हैरतअंगेज अनुभव था।

 डॉ. सुजाता उदेशी ने अपनी यह रचना पेश की

जब मैने खुदा से उसका पता मांगा तो उसने मेरा ही पता दे दिया

और कहा खुदा खुद में न होगा तो कहाँ होगा

जब मैने खुदा से खजाना मांगा तो उसने खुद लुट जाने को कहा

मैं लुटती गई और वह खजाना भरता गया

और जब खुदा से कुछ भी ना मांगा तो उसने मुझे सारी खुदाई देदी..

डॉ. यदुनाथ ने अपनी बरसों की एलोपैथिक प्रेक्टिस और इसके बाद होम्योपैथी के माध्यम से मरीजों का ईलाज शुरु करने के बारे में अपने अनुभवों  को पेश करते हुए पूरे डॉक्टर समुदाय से कहा कि मरीज का ईलाज करने से पहले उसकी संवेदना को उसकी निजी परेशानियों को और उसके पारिवारिक व सामाजिक परिवेश को भी समझना जरुरी है। उन्होंने कहा कि ईलाज में दवाई से ज्यादा महत्व मरीज की भावनाओं को समझने और उसे राहत देने का है। उन्होंने अपने यहाँ आए कई ऐसे मरीजों के किस्से बताए जो ऐलोपैथी से ठीक नहीं हो पा रहे थे मगर होम्योपैथी से मामूली दवाओं से ठीक हो गए।

जाने माने चिंतक व साहित्यकार शीतल जैन ने अपनी धारदार रचना दंगो की पैदाईश हूँ और अहमदाबाद – फैजाबाद से सभीको झकझोर दिया।

खूब किया बापू सबको आज़ाद

तेरा बापू धन्यवाद

पर उठी टीस, घर के टुकड़े दो हुए

कुछ ढल गए कुछ जल गए

बच्चे औरत काटे गए

जबान गबरू मारे गए

हिंदु मुसलमानों के दंगो की पैदाईश हूँ

जो कभी न पूरी हो सके वो ख्वाहिश हूँ

 होली के रंगों को शीतल जैन ने कुछ इस तर विखेरा

अहमदाबाद फैजाबाद

आखिर यह हे क्या

जो थे आबाद हो गए बरबाद

जो जिंदा हैं वो मुर्दाबाद

जो मुर्दा हैं वो जिंदाबाद

डॉ. अरविंद देशमुख ने अंग्रेजी रचना द फोर्थ क्लाउड प्रस्तुत की।

सुश्री मीनू जैन ने चौपाल पर अपनी रचना प्रस्तुत करते हुए गाँव की चौपाल और शहर की भागमभाग की जिंदगी का बहुत ही सुंदर रुपक प्रस्तुत किया।

चौपाल के लिए खास तौर पर भुसावल से आए श्री गुरुमुख कृष्णानी ने भी अपनी रचना प्रस्तुत की। श्री रामप्रकाशजी ने घनादी छंद में राधा और कृष्ण की होली पर बहुत सुंदर रचना पेश की।

 डॉ. साहिर वाला ने पर्यावरण के प्रति की जा रही अनदेखी पर दुःख व्यक्त करते हुए कहा कि मात्र दिखावे के लिए हम जिस तरह फूलों के गुलदस्तों का उपयोग करते हैं वल बंद कर देना चाहिए, उन्होंने कहा कि फूलों की खेती के चक्कर मे सब्जियों की खेती नहीं की जा रही है और सब्जियाँ आम आदमी की पहुँच से दूर होती जा रही है।

चौपाल हो और सबके प्रिय शेखरदा (शेखर सेन) कुछ न सुनाएँ तो पूरी चौपाल सूनी सूनी सी लगने लगती है। इस बार शेखरजी ने एक पाकिस्तानी शायरा साहबा अख्तर की कृष्ण पर लिखी गई रचना पेश की।

बाँसुरी हाथ में पकड़े सबने मुंह पर छिड़का नीला रंग

सभी कृष्ण बने तो राधा नाचे किसके संग

अंतर्यामी के दर्शन को अंतर्ज्ञानी जाए

साहबजी वनवास करके कोई राम नहीं बन पाए

उन्होंने कहा कि 1947 से 1973 तक भारतीय और पाकिस्तानी रचनाकार एक दूसरे से जुड़े हुए थे और अपनी रचनाओं का आदान-प्रदान करते थे।

इसके बाद उन्होंने अपने एकाकी नाटक कबीर से कबीर की लोई से शादी होने के प्रसंग को जिस जीवंतता से प्रस्तुत किया उससे ऐसा लगा मानो पूरी चौपाल कबीर की शादी में पहुँच गई।

चौपाल का समापन शेखरदा द्वारा प्रस्तुत ललित किशोरी जी द्वारा रचित 150 साल पुरानी रचना से हुआ और इस रचना को सुनना अपने आप मे एक अलग ही अनुभव था।

कृष्ण की आँखों का उन्होंने कितना कल्पनातीत वर्णन किया है-

लजीले, सकुटिले, सरसिले, सुरिसलेसे कुटीले से चटकीले, मटकीले हैं

रूप के लुभिले,  कजरिले, उन्मिले, वरछिले, तरछिले, फसीले, गसीले से हैं

झमकीले, गरबीले मानो अति रसीले मचकीले और रंगीले हैं…

लजीले नैना नंदलाल के सजीले से हैं

 क्या आज कोई रचनाकार इस बात का दावा कर सकता है कि उसकी रचना आने वाले सौ सालों में याद की जाएगी। फिल्मी गीतों की सस्ती धुनों पर लोगों को नचाने वालों को कम से कम सौ पचास बरस पहले की रचनाओं को जरुर पढ़ लेना चाहिए ताकि व यह जान सकें कि किसी के लिखी पंक्तियाँ अमर होने का माद्दा क्यों रखती है?


चौपाल में 1857 के 150 साल पूरे होने पर सार्थक चर्चा

मार्च 1, 2007

लगता तो ऐसा है कि  न तो देश की सरकार को न नेताओं को और न ही मीडिया माध्यमों को इस देश के गौरवशाली इतिहास से कोई लेना देना नहीं है। मीडिया तो अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान से लेकर लालू प्रसाद यादव के घेरे से बाहर आ ही नहीं पाता है। ऐसे में उन्हें कहाँ याद रहे कि देश की आज़ादी की लडाई का शंखनाद करने वाली 1857 की क्रांति का यह 150 वाँ साल है…खैर, इस बात को और किसी ने याद रखा हो या न हो मुंबई के जागरुक हिंदी प्रेमियों की चौपाल ने इस पूरे साल अपनी चर्चा का विषय ही 1857 की क्रांति को बनाया है। इस गौरवशाली विषय चयन के लिए पटकथा लेखक श्री अतुल तिवारी निश्चय ही साधुवाद के पात्र हैं।

जाने माने अभिनेता श्री राजेंद्र गुप्ता के घर संपन्न हुई इस बार की चौपाल में 1857 पर बेहद सार्थक और विचारोत्तेजक चर्चा की शुरुआत हुई। 1857 की क्रांति के  इतिहास पर शोध कर रहे पत्रकार और टाईम्स ऑफ इंडिया व इकॉनॉमिक टाईम्स  के स्तंभकार श्री अमरेश मिश्रा ने अपनी बोधगम्य और शोधपरक चर्चा मे इस क्रांति से जुड़े कई अनजाने तथ्यों का खुलासा किया।

 श्री अतुल तिवारी ने अपनी जोशीली रचना से इस कार्यक्रम की  शुरुआत की।

सुनो सुनो सुनाएं कहानी

आज सुनानी है जो कहानी

वैसे कहते हैं है ये बड़ी पुरानी

दादा के दादा और नानी की नानी

ऐसी हमने सुनी ये कहानी

बीती सदी और बरस पचासा

जब ये हुआ गजब तमाशा

उसी विप्लव, उसी क्रांति की

एक आरंभ और युगांत की

सुनो कहानी, सुनो कहानी

श्री अमरेश मिश्रा ने अपनी चर्चा जारी रखते हुए यह तथ्य प्रतिपादित किया कि किस तरह इस क्रांति ने देश भर में आग पकड़ ली, जबकि तब कोई समाचार माध्यम तक नहीं था। उन्होंने कहा कि यह क्रांति देश की जनता की सहज स्फूर्त प्रतिक्रिया थी, जो अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ एक शोले की तरह भड़की। उन्होंने कहा कि इस क्रांति की सबसे बड़ी ताकत और खास बात यह थी कि  हिंदू और मुसलमान दोनों ने ही मिलकर इस लड़ाई को अपने अंजाम तक पहुँचाया,  इसमें दलित, पिछड़े और समाज के उपेक्षित कहे जाने वाले वर्ग ने भी पूरी सक्रियता से भागीदारी की।

श्री मिश्रा ने कहा कि भारत सरकार 1857 की क्रांति की 150 वीं सालगिरह को जोर शोर से मनाने की तैयारी कर रही थी (श्री मिश्रा सरकार द्वारा इस हेतु बनाई गई समिति के सदस्य थे) लेकिन अंतर्राष्ट्रीय दबावों के चलते इसे बजाय 1857 की क्रांति के रूप में मनाने के 1857 से आज तक के भारत की स्थिति के रूप में मनाया जा रहा है। इस बात को स्पष्ट करते हुए उन्होने कहा कि अंतर्रष्ट्रीय शक्तियाँ कतई नहीं चाहती कि 1857 की जिस  क्रांति ने पूरे भारत को एक सूत्र में पिरोकर विदेशी साम्राज्य की जड़ें हिला दी थी वे स्थितियाँ देश के लोगों को याद दिलाई जाए। श्री मिश्रा ने अपने कई वर्षों के शोध और परिश्रम से 1857 की क्रांति पर अंग्रेजी में एक पुस्तक भी लिखी है जो शीघ्र बाज़ार में आने वाली है। उन्होंने कहा कि 1857 की क्रांति में भारत का भविष्य छुपा है।

उन्होंने दुःख व्यक्त करते हुआ कहा कि 1857 की क्रांति की याद गाँवों में तो आज भी जिंदा है मगर शहरी लोग इसे भूल चुके हैं। आज भी देश के हालात 1857 की क्रांति से पहले जैसे होते जा रहे हैं। श्री मिश्रा ने अपने शोध के आधार पर क्रांति से जुड़ी कई छोटी छोटी घटनाओं का बेहद रोमांचक और विचारोत्तेजित करने वाला विश्लेषण प्रस्तुत किया।

इस अवसर पर कॉर्पोरेट जगत से जुड़े और आर्थिक विषयों पर ज़बर्दस्त पकड़ रखने वाले श्री सचिन जुनेजा ने इस क्रांति के आर्थिक पहलुओं को एक नए आयाम के साथ प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि यह क्रांति इस बात का सबूत थी कि जनता खुद अपने दम पर अपने पर हो रहे अत्याचारों के  खिलाफ आवाज उठा सकती है। लेकिन दुर्भाग्य से उस समय देश में ऐसा कोई नेता नहीं था जो इस क्रांति की मशाल को आगे बढ़ाता, अगर इस क्रांति को एक अच्छा दूरदर्शी नेतृत्व मिलता तो इसका प्रभाव ज्यादा और व्यापक हो सकता था। श्री जुनेजा ने क्रांति से जुड़े आर्थिक पहलुओं की चरचा करते हुए उस समय के समाज की आर्थिक स्थिति पर रोचक जानकारियाँ प्रस्तुत की।

श्री अमरेश मिश्रा  ने बताया कि 1857  में भारत की आबादी 15 करोड़ थी और इस क्रांति में 1 करोड़ लोग मारे गए थे। जबकि द्वितीय विश्व युध्द में इससे आधे ही लोग मारे गए थे। उन्होंने कहा कि अवध की आबादी उस समय 1 करोड़ थी और वहाँ पर 30 लाख लोग मारे गए। यह बात गौर करने लायक है कि 1857 में देश की जो आबादी थी वह 1900 में एक तिहाई रह गई थी।

कार्यक्रम में गुजराती और हिंदी के प्रसिध्द भजन गायक श्री असीत देसाई और श्रीमती हेम देसाई ने गाँधीजी के प्रिय भजन प्रस्तुत किए।  

 एकल अभिनय के माध्यम से  स्वामी विवनकानंद,  तुलसीदास और कबीर जैसी विभूतियों के जीवन चरित्र को देश और दुनिया भर में प्रस्तुत कर अपनी अलग पहचान बनाने वाले गायक संगीतकार और अभिनेता श्री शेखर सेन ने हिंदी और गुजराती में राष्ट्र भक्ति गीत प्रस्तुत कर कार्यक्रम का समापन किया।

श्री अतुल तिवारी ने बताया कि चौपाल के हर सत्र में 1857 की क्रांति से जुड़े विविध पक्षों पर साल भर निरंतर चर्चा होती रहेगी।


नए साल की पहली गुलज़ार चौपाल

जनवरी 16, 2007

गुलज़ार रही मुंबई की साल की पहली चौपाल  नए साल की पहली चौपाल गीत, संगीत, शेरो-शायरी, कविता और गुलज़ार से गुलज़ार रही। जाने माने पटकथा लेखक श्री अतुल तिवारी ने शेरो शायरी के साथ संचालन का दायित्व निभाते हुए चौपाल में मौजूद कवियों और शायरों का एक खास अंदाज़ में परिचय देते हुए आमंत्रित किया।  कार्यक्रम की शुरुआत श्री बदन चौहान द्वारा प्रस्तुत गज़लों से हुई। लोक और नाद गायकी के सिध्दहस्त कलाकर श्री बदन चौहान को सुनना वाकई एक रोमांचक अनुभव था, यह चौपाल जैसे मंच पर ही हो सकता है कि कोई ऐसा होनहार कलाकार अपनी मस्ती और फक्कड़पन के साथ रचना पेश करे। श्री बदन चौहान ने कैसूर ज़ाफरी की इस रचन पर ज़बर्दस्त दाद बटोरी। उन्होने इन पंक्तियों से शुरुआत की…. बहर-ए-हस्ती ने हमें पार उतरने ना दियाहम तो मरते थे मगर आपने मरने ना दियाएक सज़दा भी दरे आर पे करने ना दियामरना चाहा भी तो हालात ने मरने ना दियामेरे मरने पर भी जालिम की अदावत ना गई मुकर जाने का जालिम ने अनोखा ढंग निकाला हैसभी से पूछता है, इसको किसने मार डाला हैमेरे मरने पर भी जालिम की अदावत ना गई अपने कूचे से जनाजा भी गुजरने ना दियाअजी हम तो मरते थे, मगर आपने मरने ना दियाबहर-ए-हस्ती ने हमें पार उतरने ना दिया  और अपनी बात खत्म करते हुए इस शेर पर ज़बर्दस्त दाद बटोरीशेर गोई मेरी फितरत है मगर, ऐ कैसरइस गरीबी ने मेरे फन को निखरने ना दिया  इसके बाद गज़लकार लक्ष्मण दुबे ने अपनी शुरुआत कुछ यों की…भले शौक से मयकदा तुम्हारी मगर प्यास हमारी रहेगी  मै तुम्हें उम्र भर खत न लिख सकाआस थी जब भी लिखूं, हाल अच्छा लिखूं इसके बाद उन्होंने वर्तमान हालात पर सुंदर दोहे पेश किएमजहब की चक्की चली, चूर चूर इंसानदीमक के आगे भला, क्या गीता क्या कुरान  भूलकर मत छीनना कभी किसी से आसहो सकता है हो वही दौलत उसके पास बाँट रहा मासूमियत बच्चों में नादानसीखा रहा है तैरना, मछली को नादान  स्थापित गज़लकार श्री हस्तीमल हस्ती ने अपनी शायरी का रंग दिखाया लोग मिलते ही नहीं, राह दिखाने वालेहर जगह जाल है, जाल बिछाने वाले  दर्द की कोई दवा लेकर सफर पर निकलो जाने मिल जाए कहीं, ज़ख्म लगाने वाले मुंबई बम ब्लॉस्ट की घटना और मुंबई के लोगों की जिंदादिली को उन्होने कुछ इस तरह बयां किया  तेरी साजिश में कुछ कमी है अभीमेरी बस्ती में रोशनी है अभी समाज में बदलते रिश्तों की कसक को हस्तीजी ने इस रचना से बयां कियाअब है फज़ूल वक्त कहाँ आदमी के पासदर और कोई ढूँढ ज़ज्बात के लिए  ऐसा नहीं कि साथ निभाते नहीं लोगआवाज़ दे के देखिए फसादाद के लिए इल्जाम न दीजिए किसी एक कोमुज़रिम सभी हैं हालात के लिए   शायर ताज़दार ताज़ ने अपनी बात कुछ इस तरह कही कश्ती की गरकाबी तक है दरिया का सब हंगामामौजें कब तक शोर करेगी, होगी हलचल कितनी देर  जा रे सावन तुझसे अपनी प्यास का सौदा कौन करेप्यास है जीवन भरकी, साथी तेरे बादल कितनी देर हँसते हँसते वो तो सबसे हाथ मिलाकर चला गयावो क्या जाने रोया होगा कोई पागल कितनी देर  उसने मेरा हाल सुना तो भीगा आंचल कितनी देर सारे जग से आँख बचाकर जब भी उसको सोचा ताज़मेरे सूने मन में गूँजी उसकी पायल कितनी देर   देश की जानी मानी कवयित्री श्रीमती माया गोविंद ने  राधा और कृष्ण को प्रतीक बनाकर अपनी रचना कुछ यों पेश की –  जितना तन्हा तेरा चाँद, उतना तन्हा मेरा चाँदतेरी नज़रों की चौखट पे, सहमा टूटा मेरा चाँदजंगल के सूखे पत्तों पर शबनम है, या रोया मेरा चाँदझील के ठहरे पानी में ही, मैने गहरा बोया चाँदनैनों का वीरान शहर था, जिसमें खोया मेरा चाँदकितनी है शफकार चाँदनी, अर्श से मैने धोया चाँदख्वाबों में राधा से जब पूछा,  देखा मेरा गोरा चाँदराधा बोली – चाँद और गोरा, मैने देखा काला चाँदतेरी आँखों के अंबर से टूटा, तारा-तारा चाँदतेरी आँखों के अंबर से टूटा, तारा-तारा चाँदमेरे कमरों की खिड़की पर आकर सोया चाँद घटता जाता है पल पल, सबने खूब निचोड़ा चाँदमैने पैबंद लगा लगाकर ओढ़ लिया है पूरा चाँद इसके बाद उन्होंने अपनी इस रचना से मकर सक्रांति की ठंड में रुमानी ज़ज्बातों की उष्मा भर दी-मैने जब आँखिन में डारा आज कजरा तो वारी काली घटा घबराय के चली गईजैसे घुघराली मैने अलकें सवाँरीएक नागिन ने देखा, बल खाय के चली गई मैने अंगड़ाई ली तो पड़ोस की कँवारी छोरी दाँतन में अंगुरी दबाय के चली गईरुप की चमक ऐसी कि सौतन अंगीठी सुलगाय के चली गईकहने को तो साल बीता मगर वह रात मीठी सजना को छुड़ाय के चली गईमैं तो बूंद विरही हूँ, पुरवा की जोड़ी मोहे गरम तवे पर बूंद सी छनकाय चली गईचाँदनी की बिटिया किरन आई खिड़की से दूध जैसी चादर बिछाय के चली गई   जाने माने गीतकार, निर्देशक और लेखक गुलज़ार ने मुंबई की इस चौपाल को निरंतर सीखने और प्रेरणा मिलते रहने का एक मंच बताते हुए बचपन की जिंदगी को लेकर एक मार्मिक रचना प्रस्तुत की।   भीग जाता था जब बादल भीग जाती थी किताबजब शोर करते ऎथे परिंदे मेरे बस्ते में सब टीचर भी मेरे नाराज़ होते थे किताबें बड़ी होती गई सारी, वजन बढ़ता गया उनकामेरा बस्ता पुराना हो रहा था, फट रहा था  इसके बाद उन्होने महानगरीय ज़िंदगी के कटु यथार्थ को इस दर्द के साथ अभिव्यक्त किया-मै नीचे चलकर रहता हूँ जमीं के पास ही रहने दो मुझको बहुत ही तंग है ये सीढ़ियाँ ग्यारहवीं मंजिल कीदबाव पानी का भी छठी मंजिल तक आता हैमेरी मौत के बाद तुम मुझे सीढ़ियों से दोहरा करके उतारोगे उन्होंने परिवार की विषमताओं को कुछ इस तरह बयाँ -किया- मकाँ की ऊपरी मंजिल पर अब कोई नहीं रहतावो कमरे बंद हैं कबसे वो चौबीस सीढि़याँ उन तक पहुँचती थीवहाँ उन कमरों में याद है मुझको खिलौने एक पुरानी टोकरी में रखे थेवहाँ एक बालकनी थी जहाँ मेरा दोस्त तोता, जिसे मैं हरी मिर्ची खिलाता था, आता था मेरे बच्चों ने वो देखा नहीं वो निचली मंजिल पर रहते थेजहाँ एक पुराना पियानो रखा हैमगर वह कुछ बेसुरी आवाज करता हैसुरों पर इसके सुर चढ़ गए हैं  इसी मंजिल पे पुश्तैनी बैठक थीजहाँ पुरखों की तस्पीरें टंगी थीहवाएं आकर उनको टेढ़ी कर जाती थीमैं सीधा करता रहता थाबहू को उन तस्वीरों की बड़ी बड़ी मूँछे पसंद नहीं थीमेरे बच्चों ने उन तस्वीरों को उतारा और पुराने पेपर में महफूज़ करके रख दियामेरा एक भांजा ले जाता है उन्हें किराये से देता है फिल्मों की शूटिंग पर सेट बनाने के लिए कार्यक्रम का संचालन करते हुए श्री अतुल तिवारी ने गुलज़ार साहब का परिचय यों दियाहाल गुलज़ारे ज़माना है कि रंग ए शफकरंग कुछ और हो जाता है इस हाल के बाद   चौपाल की खासियत यह है कि इसमें भाग लेने के लिए जाने माने हास्य कवि श्री घनश्याम अग्रवाल मुंबई से 600 किलोमीटर दूर अकोला से आए, उन्होंने एक टूटे पूल की वेदना को इस तरह बयाँ किया लोहे का बड़ा हिस्सा इंजीनियर, ठेकेदार और मंत्री ने खा लियाबेचारा पुल यह सब जानता था  दिन लोगों के तानों से तंग आकर उसने नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली रेल के लंबे सफर में रेलगाड़ी किस प्रदेश से गुज़ रही है उसकी बानगी उन्होंने अपने व्यंग्य से इस तरह से पेश की  जब आप किसी स्टेशन पर उतरें और वापस अपनी सीट पर जाएं औरआपकी सीट पर कोई दूसरा बैठ जाए और आपको देखकर वापस उठ जाए तो समझो महाराष्ट्र आ गया हैऔर अगर कोई थोड़ी जगह बनाकर बैठ जाए तो समझो मध्यप्रदेश आ गया हैऔर अगर कोई आपकी आधी सीट पर कब्जा कर ले तो समझो उत्तरप्रदेश आ गया हैऔर आपको आपकी सीट पर से उठाकर कोई दूसरा बैठ जाए तो समझो कि बिहार आ गया है चौपाल की सबसे सशक्त स्तंभ सुश्री पुष्पा भारती (स्व. धर्मवीर भारती की पत्नी) ने स्वर्गीय भारतीजी की गणतंत्र पर लिखी गई एक रचान का पाठ किया। भारती जी को याद करते हुए उन्होंने कहा कि भारती जी को हर साल गणतंत्र दिवस पर लालकिले पर होने वाले कवि सम्मेलन में बुलाया जाता था मगर वे हमेशा ही वहाँ जाना टालते रलते थे। लेकिन एक बार वे इसी शर्त पर गए कि वे अपनी पसंद की रचना ही सुनाएंगे।   स्व. भारती जी ने 26 जनवरी, 1968 को इस रचना का पाट लाल किले पर किया था हजार सद हजार बार नाम की इस कविता में स्व. भारतीजी ने गणतंत्र कि विडंबना को बहुत ही सशक्त शब्दों में व्यक्त किया था।   बानगी देखिए इसमें चंद शब्द हैं श्रीमान जो मेरे पिता के पिता के पिता के पिता के पिता ने कहे थे.. इसके बाद अभिनेत्री और कवयित्री दीप्ती मिश्र ने जो दम भरते हौ चाहत का तो, जरा निभाओ तो के माध्यम से रिश्तों की खटास और मिठास को पेश किया।  श्री यज्ञ शर्मा ने कोई पेट से बड़ा नहीं होता शीर्षक से अपनी रचना प्रस्तुत की-हर विचार को आँतों से गुज़रना होता हैगाँधी हो या हिटलर भगवान हो या शैतानसब अपना नाम जपने वालों के साथ रहते हैंअंत सबका वही होता है  आँतों से गुज़रने पर किसी का होता है इस अवसर पर श्री विजय कुमार, श्री आलोक श्रीवास्तव, श्रीशमी मुस्तसर, श्री सोहन शर्मा, श्री नामवर आदि ने भी अपनी रचनाएं प्रस्तुत की।   कार्यक्रम का समापन हर बार की तरह श्री शेखर सेन ने किया, और यह रचना पेश की-बिना दवा के मर जाते हैं यहाँ पे जच्चा बच्चाऔर रेडिओ चीख रहा है सारे जहाँ से अच्छा….पहली बारिश में टूटा था बाँध, जो बना था कच्चाऔर रेडिओ चीख रहा है सारे जहाँ से अच्छा….जाँच कमीशन बैठी रहती है, खूनी देता गच्चाऔर रेडिओ चीख रहा है सारे जहाँ से अच्छा….बचपन बीता मजबूरी में, बूढ़ा हो गया बच्चाऔर रेडिओ चीख रहा है सारे जहाँ से अच्छा…. 

      


चौपाल मुंबई की

जनवरी 13, 2007

  मुंबई एक ऐसा शहर जहाँ किसी के पास इतनी फुर्सत नहीं है कि पल दो पल पने लिए भी वक्त निकालें, मगर इसी शहर में कई ऐसे लोग और संगठन हैं जो अपने लिए ही नहीं बल्कि  दूसरों के लिए भी वक्त ही नहीं निकालते बल्कि कुछ अलग करना चाहते हैं।  मुंबई चौपाल भी एक ऐसा ही संगठन है जिससे जुड़े समर्पित हिंदी प्रेमियों ने हिंदी भाषियों को रचनात्मक उर्जा देने का अनवरत सिलसिला सा शुरु किया है। इस चौपाल में आकर एक आत्मीय सुकून मिलता है।   अपने एकांकी नाटकों के माध्यम से देश और दुनिया में कबीर, तुलसी और विवेकानंद जैसे महापुरूषों के चरित्रों को सजीवता से पेश करने वाले शेखर से हों, जाने माने पटकथा लेखक अतुल तिवारी या फिर अपना कारोबार छोड़कर हिदी की चिंता करने वाले अशोक बिंदल, सभी पूरे प्रण-प्राण से इस चौपाल को एक सशक्त मंच बनाने में जुटे रहते हैं। यही वजह है कि मुंबई शहर में चौपाल का सिलसिला विगत आठ वर्षों से लगातार चल रहा है। इस संस्था की खासियत यह है कि इसमें कोई पदाधिकारी नहीं है, सभी एक साथ एक ही जगह पर बैठकर आपस में साहित्य, फिल्म, कला और संस्कृति के विविध प्रक्षों पर खुलकर चर्चा करते हैं। यहाँ प्रेंमचंद पर भी बात होती है तो चार्ली चैप्लिन पर भी।  पारिवारिक और आत्मीय वातावरण में तीन से चार घंटे कब निकल जाते हैं पता ही नहीं चलता है। यह एक ऐसा मंच है जहाँ नई पीढ़ी के लोग बुज़ुर्गों के साथ बैठकर एक साथ बात करते हैं। चौपाल की खासियत यह है कि यहाँ परदे पर काम करने वाले भी आते हैं तो परदे के पीछे रहकर किसी अभिनेता, अभिनेत्री के किरदार को या किसी गीत को यादगार बना देने वाले वे कलाकार भी जिनके काम का कहीं कोई चर्चा नहीं होता। ऐसी शख्सियतों के जिंदगी के अनुभवों को जब सुनते हैं और उस दृश्य या गीत को याद करते हैं तो उनके सम्मान में श्रध्दा से अपना सिर बरबस ही झुक जाता है।